मालवा सुल्तान (मांडू के बादशाह गयासुद्दीन खलजी की कहानी )

मालवा सुल्तान के पास मुहम्मद साहब (स व अ व स )की दाढ़ी के वालों का  होना ओर नागोर के मखदूम शेख हुसैन(र॰म॰)का उन वालों के दर्शन को दोड़े आना

एक दिन सुल्तान गयासुद्दीन खलजी बेठे हुए थे उन्होने अपने करीबियों से कहा कि, "मेरे हृदय में एक अभिलाषा है और वह इस प्रकार है कि मखदूम ख्वाजा हुसेन नागौरी मेरे समकालीन है किन्तु मैं उनके दर्शन नहीं कर सका। मुझे इसका खेद है।” किसी ने कहा कि "इसमें कौन सी रुकावट है ?" सुल्तान ने कहा कि, “वे वास्तविक बादशाह है। इस स्थान पर क्यों आयेंगे और यदि मैं अन्य राज्य में जाऊंगा तो बहुत से लोगों को हानि होगी। फिर भी मुझे नहीं ज्ञात कि उनके दर्शन कर सकूँगा अथवा नहीं। मैंने उनके विषय में सुना है। कि वे संसार वालों से संबंध नहीं रखते।" बादशाह एक  वफ़ादार शेख अब्दुल अजीज़, जो मखदूम शेख हुसेन के संबंधियों में से था। उसने कहा कि, “मेरे हृदय में एक बात आई है जिससे ख्वाजा हुसेन को इस स्थान पर ला सकता हूं।"  सुल्तान ने कहा कि, “यदि यह कार्य करो तो एक लाख तन्के मार्ग व्यय हेतु ले लो और एक लाख तन्के मैं तुम्हें ईनाम  के रूप में भेंट करता हूं।" वह चल खड़ा हुआ और नागोर पहुंचा। वहां पहुंच कर उसने ख्वाजा हुसेन के चरणों का चुम्बन किया। ख्वाजा ने पूछा कि, “हे भाई अब्दुल अजीज! तुम कहां थे और कैसे आये?" उसने कहा कि, "मैं मन्दू में था और अपने स्वामी की सेवा में आया हूं।" उन्होंने पूछा कि, “क्या है ?" अब्दुल अज़ीज़ ने कहा कि, “मन्दू के किले में मुहम्मद साहब (स व अ व स )की दाढ़ी के दो बाल वर्तमान है।” शेख यह सुनते ही उठ खड़े हुए और बड़ी ही मूच्छित दशा में चलते रहे। नागौर के मुक्ता फ़ीरोज़ खां को इस बात की सूचना मिल गई कि ख्वाजा मन्दू के किले की ओर जा रहे है। वह उनकी सेवा में पहुंचा और यात्रा की सामग्री घोड़े, ऊंट तथा खेमें इत्यादि की व्यवस्था करा दी। जब वह मन्दू के समीप पहुंचे तो जिस स्थान से मन्दू का किला दृष्टिगत होता था वहां से वे प्रसन्नता प्रदर्शित करते हुए अग्रसर हुए। शेख अब्दुल अज़ीज़ आगे आगे जाता था। उसने सुल्तान ग़यासुद्दीन के नाम का उल्लेख नहीं किया था, केवल शुभ बालों की चर्चा की थी और वे (ख्वाजा हसेन नगौरी) उसके दर्शनार्थ चल खड़े हए थे। अचानक सुल्तान को शेख के पहंचने का समाचार प्राप्त हो गया। वह तथा उसका पुत्र नसीरुद्दीन स्वागतार्थ रवाना हए और ख्वाजा से मिल कर दोनों ने उनके चरणों पर अपने सिर रख दिये। ख्वाजा ने आकाश की ओर दष्टि करके शेख अब्दुल अजीज से कहा कि, "तू ने हमें दर्शन के बहाने से। धोखा दिया।" शेख अब्दुल अजीज ने कहा कि, "हे स्वामी! मैंने कोई भी विश्वासघात नहीं किया। ये लोग उस बाल के सेवक हैं।" ख्वाजा ने कहा कि, "सेवक को स्वामी के समक्ष व्यर्थ की बात नहीं कहनी चाहिये।" जब सुल्तान ने यह बात सुनी तो बाल लाने के लिए गया और इत्र के दो डिब्बे लाया। एक । एक एक बाल दोनों डिब्बों में था। दोनों व्यक्ति एक एक डिब्बा हाथ में लेकर आये। ख्वाजा दुरूद' पढ़ने । लग गए। महम्मद साहब के बालों के विषय में यह प्रसिद्ध था कि दुरूद पढ़ने पर वे सुई की नोक




के बराबर डिब्ब के बाहर निकल आते थे। ख्वाजा के लिए दोनों बाल हवा में होते हुए उनके हाथ में पहुंच गये। ख्वाजा ने दोनों को अपनी आंखों में रख लिया और उनके दर्शन से सम्मानित हुए।
तदुपरान्त सुल्तान ने ख्वाजा के चरणों का चुम्बन किया और उन बालों को डिब्बों में रख लिया और आगे आगे रवाना हो गया। ख्वाजा बालों के सम्मान में हर्ष प्रदर्शित करते हुए चलने लगे, यहां तक कि सुल्तान के अन्तःपुर(जनान खाने)की समस्त स्त्रियों को आदेश दे दिया था कि प्रत्येक उनके पहुंचने पर कुछ न कुछ न्योछावर करे। हर एक ने कुछ न कुछ न्योछावर किया और फूल तथा इत्र छिड़का। फूल ख्वाजा के सिर तथा कमर में लिपट गये। सेवकों ने न्योछावर के दो बड़े-बड़े बोझ एकत्र कर लिए। तदुपरान्त ख्वाजा बाहर निकले और उन्होंने दोनों बोझों को एक मुरली बजाने वाले को दे दिया और उसके गले में बांह डाल दीं। वह मुरली बजाता था और ख्वाजा समा करते हुए मार्ग में चलते जाते थे। वे गलियों में जा रहे थे कि शहर का क़ाज़ी पहुंच गया। काजी सैयिद था। उसने शेख से कहा कि, "आप आलिम होकर फूल पहनते हैं। पुरुष को फूल पहनना उचित नहीं।" ख्वाजा ने कहा कि, "हे स्वामी! मेरे लिए उचित है कारण कि मैंने इसे तुम्हारे दादा की मित्रता में पहना है।" ख्वाजा ने कुछ उचित छन्द भी पढ़े। जो स्थान उनके निवास हेतु निश्चित था वहां पहुंचे और दो मास तक वहां ठहरे रहे। सुल्तान गयासुद्दीन दावात तथा काग़ज़ लाकर दिन भर बैठा रहता था और उनके मलफ़्ज़ लिखा करता था। जब मलफूज़ समाप्त हो गया तो उसने निवेदन किया कि, “आप इसके लिए कोई नाम निश्चित कर दें।" ख्वाजा ने कहा कि, “इसका नाम असरारुन्नबी रक्खो।" ख्वाजा ने मुहम्मद साहब के नाम पर कुरान की टीका के ३० ग्रन्थ तैयार किये और उसका नाम नूरुन्नबी रखा। इसके अतिरिक्त ख्वाजा ने रसूल बाड़ी नामक एक उद्यान का भी निर्माण कराया तथा मुस्तफ़ा सागर नामक एक हौज़ नागौर में बनवाया। संक्षेप में, वे ईश्वर के बहुत बड़े भक्त थे। जब वे बिदा होने लगे तो सुल्तान ने उनसे कहा कि, "हे स्वामी! आपने मुझे यहां पधार कर सम्मानित किया। अब मेरे लिए कुछ भविष्यवाणी भी कर दें।” ख्वाजा ने कहा कि, "ईश्वर तुझे क्षमा करेगा और तुझसे संसार का हिसाब न लेगा, कारण कि तू ने इस लोक को त्याग कर परलोक की चिन्ता की है।" सुल्तान ने निवेदन किया कि, “यदि आप इसे  अपनी लेखनी से लिख कर मुझे दे देंगे तो मैं उसे अपनी क़ब्र में ले जाऊंगा।" ख्वाजा ने उसे लिख कर दे दिया कि, “यदि ईश्वर तुझसे दुनिया का हिसाब ले तो इसकी जमानत में करता हूं।" उस युग के लोग इस विषय में यह कहते थे कि, "शेख ने ईश्वर के कार्यों के संबंध में जमानत ली थी, किन्तु परलोक के विषय में जो कहा गया वह संदिग्ध है।” किसी ने ख्वाजा से यह बात कही कि, “लोग इस प्रकार कहते हैं।" उन्होंने उत्तर दिया कि, "इसमें कहने सुनने का स्थान शेष है। जब तक गयासुद्दीन जीवित है तब तक इसका अन्त संदिग्ध है। किन्तु जब उसकी मृत्यु हो जायेगी तो लोगों को यह भलीभांति ज्ञात हो जायगा कि वह पवित्रता की दशा में मरा।"